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मंगलवार, मई 08, 2018

"घर दिलों में बनाओ" " (चर्चा अंक-2964)

मित्रों! 
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक। 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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"घर दिलों में बनाओ"  

राधा तिवारी ' राधेगोपाल ' 

घर दिलों में बनाओ
राधा तिवारी (राधे गोपाल)
 राधा तिवारी  ' राधेगोपाल '
किसी को अपना बनाओ तो अच्छा है l
किसी को पास बुलाओ तो अच्छा है  ll

राहें काँटे भरी तो सदा हैं मिली l
किसी के राह से कंटक हटाओ तो अच्छा है 
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ग़ायब हो गये हैं ठहाके.....! 

सुबह का समय. मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए, 
रास्ते में ही नया बना जॉगिंग पार्क मिलता है. 
जब लौटती हूं, तब सामूहिक हंसी सुनायी देती हैं. हा हा हा....हा हा हा.... 
वन्दना अवस्थी दुबे 
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अभागन की शादी 

किशन लाल परेशान थे। हों भी क्यों न? बेटी जवान हो चुकी और अभी तक शादी के लिए योग्य तो क्या अयोग्य वर भी नहीं मिला! बेटी पढ़ी लिखी, खूबसूरत थी मगर हाय! दोनों पैरों से अपाहिज ही बड़ी हुई थी अभागन। लड़के की तलाश में रिश्तेदारों, परिचितों के दरवाजे-दरवाजे माथा टेकते कई दिन बीत चुके थे... 
देवेन्द्र पाण्डेय  
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एक सपने की हत्या 

कुछ मैंने की, कुछ तूने की कुछ मिलकर हम दोनों ने की इक सपने की हमने हत्या की । समझौतों का ये जीवन जीया मिलकर गरल कुछ हमने पीया जो करना था वह हमने न किया । थोड़ी तूने, थोड़ी मैंने ये दूरी बनाई मिलकर हमने थी जो सेज सजाई उसके बीचों बीच ये दीवार बनाई । कुछ तू ना समझा कुछ मैं न समझी बातों बातों में कब जिन्दगी ही उलझी मिल हमें जो सुलझानी थी ना सुलझी .... 
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किताबों की दुनिया -176 

नीरज पर नीरज गोस्वामी  
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नापाक रिश्ते 

जब ब्याह हो जाता है 
अपना दिल जान 
सब न्यौछावर कर देती है स्त्री, 
पर जब उसे वो मिलता नही 
जो वो चाहती है.. 
प्यार पर Rewa tibrewal  
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Poem- Pirates 

Chaitanyaa Sharma 
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इक ज़माना हो गया है..... 

कल्पना सक्सेना 

तुमको रूठे इक ज़माना हो गया है,  
मुंह दिखाए इक ज़माना हो गया है... 
yashoda Agrawal 
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व्हाईट ब्लैंक पेपर 

उस वक्त उसने मुझे पूरी तरह से जकड़ ही लिया था।
मैं उस कागज के पीछे दौडने ही वाला थाजो भागे जा रहे अखबार वाले की साइकिल के पीछेकैरियर में बंधे अखबारों के बीच से निकलकर उड़ रहा था। बेशक किसी उत्पाद यादी जाने वाली सर्विस का विज्ञापन उसमें रहा होगालेकिन विज्ञापन की बजाय मुझे उसके पृष्ठ भाग का कोरापन भा रहा था। उसे भी एक वैसे ही कोरे कागज की जरूरत थी। बल्किवह तो बिना रंगीनी वाला व्हाई ब्लैंक पेपर ही खोज रहा था। कागज में छपे विज्ञापन से उसे भी कुछ लेना-देना नहीं था। अखबार के बीच रखकर लोगों के घरों तक पहुंचाये जाने वाले कागजों में अक्सर कोई न काई विज्ञापन ही रहता है... 
लिखो यहां वहां पर विजय गौड़  
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7 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    सुन्दर चर्चा ........

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर रचना।.........
    मेरे ब्लाॅग पर आपका स्वागत है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. चर्चामंच में मेरी रचना शामिल करने के लिए आपका आभार.कुछ नए ब्लॉग पढने को मिले, अच्छा लगा.

    जवाब देंहटाएं
  4. धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी ' क्रांतिस्वर ' को इस अंक में स्थान देने हेतु।

    जवाब देंहटाएं

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