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रविवार, दिसंबर 18, 2016

"गया पुरातन भूल" (चर्चा अंक-2560)

मित्रों 
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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दोहे 

"गया पुरातन भूल" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

बिछा रहा इंसान खुद, पथ में अपने शूल। 
नूतनता के फेर में, गया पुरातन भूल।। 
हंस समझकर स्वयं को, उड़ते नभ में काग। 
नीति-रीति को भूलकर, गाते भौंडे राग।। 
नवयुग में इंसान का, दूषित हुआ दिमाग। 
रंगों के तेजाब से, खेल रहे हैं फाग... 
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फूल गुलाब का 

*महक उठता था मेरा अंग*  
*जब तू था मेरे संग-संग*... 
Reena Maurya 
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प्राण हूँ कपड़े बदलने जा रहा हूँ 

मृत्यु से अभिसार करने जा रहा हूँ
मैं किसी से प्यार करने जा रहा हूँ
साँसों की पूंजी खजाना सब लुटा
एक नया व्यापार करने जा रहा हूँ... 
गिरीश बिल्लोरे मुकुल 
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युवा कवि असलम की कवितायेँ - 

उमाशंकर सिंह परमार 

असलम हसन युवा कवि हैं । अभी कुछ दिन पहले साथी हरेप्रकाश उपाध्याय ने असलम की कुछ कविताएं मुझे पढ़ने के लिए प्रेषित की थी। हरेप्रकाश अक्सर नये लोगों और रचनाकारों से मुझे परिचित कराते रहते हैं। असलम की कविताएं पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं कविता नहीं पढ़ रहा बल्कि अपने द्वारा की जा रही प्रतिक्रियाएं पढ़ रहा।मेरा अन्दाजा है , जो भी इन कविताओं को पढ़ेगा , वह अपनी प्रतिक्रिया ही समझेगा। कारण है व्यवस्था के खिलाफ की गयी प्रतिक्रिया कभी भी दूरावलोकन से नहीं अनुभूत की जा सकती है... 
सुशील कुमार 
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16 दिसम्बर 

16 दिसम्बर हर साल आएगा और चला जाएगा समय का पंछी एक बार फिर हाथ मल बिलबिलायेगा मगर इन्साफ न उसे मिल पायेगा स्त्रियाँ और इन्साफ की हकदार हरगिज़ नहीं चलो खदेड़ो इन्हें इसी तरह कानून की दहलीज पर सिसका सिसकाकर ताकि कल फिर कोई न दिखा सके ये हिम्मत ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का बस सिर्फ स्त्रियों का नहीं... 
vandana gupta 
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चाह कर भी न कर सकी जो प्यार 

अस्पताल की खिड़की से तारों को वो एक टक लगाए देख रही थी। जैसे आसमान के सीने में उफनते उसके सपने, ख्वाहिशें, उसके प्रेम के प्रतीक हों वे तारे। अस्पताल की इस खिड़की से दिखता आसमान का ये टुकड़ा मेरा है, पूरी तरह मेरा। मेरे पास अपनी ज़मीन नहीं लेकिन यह धरती मेरी है। रात का समय। यह खुली खिड़की। खिड़की से आती ठंडी हवा। तारों भरा आसमान। कम से कम ये सारे तो मेरे हैं। इन्हें तो मुझसे कोई नहीं छीन सकता... 
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होगा आगे जो भी देखा जाएगा 

उठके जब मेरा जनाज़ा जाएगा 
है यक़ीं इतना के तू आ जाएगा... 
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 
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हमने इस जग की 
हरदम रीत निराली देखी। 
सूरत देखी साफ, 
मगर सीरत कुछ की काली देखी... 
Rajesh Tripathi 
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Posts of 14 to 16 Dec 16 

इमारतों का अपना दर्द होता है 
ठीक किसी मनुष्य की तरह 
कि कोई आये, दुलारे, सुनें 
और फिर आहिस्ते से 
पुचकार कर चल दें... 
ज़िन्दगीनामा पर Sandip Naik 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कुछ समेटे हुए सुन्दर रविवारीय चर्चा ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं

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