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शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2015

"आलस्य और सफलता" (चर्चा अंक-2145)

सुस्ती व आलस्य एक ऐसी चीज़ है जो इंसान को किसी भी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देती है। जो व्यक्ति आलसी होता है वह लगभग हर कार्य करने में यथासंभव टाल- मटोल की कोशिश करता है और उसका परिणाम यह होता है कि जीवन के किसी भी मैदान में सफल नहीं हो पाता है। आलस्य एसी बुरी चीज़ है जो इंसान के व्यक्तित्व को कुचल देती है और जीवन का स्वर्णिम समय अर्थहीन कार्यों में चला जाता है। परिणाम स्वरूप वह अपने जीवन में पीछे रह जाता है। आलस्य एक ऐसी ज़ंजीर है जिसकी एक कड़ी दूसरी कड़ी से मिली होती है और वह इंसान के हाथ पैर बांध देती है। जब आलसी इंसान एक कार्य अंजाम देने में सुस्ती से काम लेता है तो समय नहीं गुज़रता कि वह दूसरे कार्य को भी अंजाम देने में सुस्ती से काम लेता है। इंसान की यह आदत जारी रहती है यहां तक कि वह समाज एवं परिवार के एक अपंग अंग में परिवर्तित हो जाता है
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 (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 
कर रही हूँ प्रभू से यही प्रार्थना।
ज़िन्दगी भर सलामत रहो साजना।।
चन्द्रमा की कला की तरह तुम बढ़ो,
उन्नति की सदा सीढ़ियाँ तुम चढ़ो,
आपकी सहचरी की यही कामना।
ज़िन्दगी भर सलामत रहो साजना।। 
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अर्चना चावजी  
पहले मेरे पास नोकिया था छोटे स्क्रीन वाला .... व्हाट्सएप की जरूरत नही थी ...ब्लॉग और फेसबुक ,यूट्यूब सब ...घर पर डेस्कटॉप पर वापर लेती थी ...
इस बीच टैब भी ले लिया .....अब सब कुछ गतिमान हो गया था मगर मैंने बड़े आकार का होने के कारण फोन का इस्तेमाल न होने वाला लिया था .
करवाचौथ के दिन
भारतबर्ष में सुहागिनें
अपने पति की लम्बी उम्र के लिए
चाँद दिखने तक निर्जला उपबास रखती है .
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राकेश कौशिक 
सुची सुन्दर सभ्य सुशील और होठों पर मुस्कान।
 ईश्वर से विनती मेरी पूरे हों अरमान।
 पूरे हों अरमान ख़ुशी जीवन में आए। 
मिली नौकरी अब मनचाहा वर मिल जाए। 
अनुपमा पाठक 
ये कुछ समय पुरानी तस्वीर है किसी सुबह की... सुबह की भागम भाग में नज़र पड़ी होगी... क्लिक कर लिया होगा इस क्षण को... फिर वो क्षण भी खो गया और तस्वीर भी विस्मृत हो गयी... ! विस्मृति की धूल जाने कैसे आज सिहराती हुई हवा ने उड़ा दिया और यह तस्वीर प्रकट हो गयी मेरे सामने जैसे दे रही हो सुबह का मनोरम सन्देश अपनी धीमी आहटों से...
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कुलदीप ठाकुर 
मैं
वर्षों से
जिंदगी पर
एक किताब लिख रहा था...
हर दिन
सोचता था
आज ये किताब
पूरी हो जाएगी...
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रमाजय शर्मा 
हर साल हम रावण जलाते हैं, बड़ी बड़ी बाते लिखते हैं कि ये दिन बुराई पर सच्चाई की जीत होती है, पुराने समय का तो पता नहीं बस पढ़ा है, लेकिन आज के समय में क्या सच में ऐसा होता बै, क्या किसी ने बुराई को हारते देखा है ?
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सुषमा शर्मा 
करके मैं साजों श्रृंगार...
माथे पर उनके नाम का सिंदुर,
गले में उनकी बाहों का हार...
मैं आईना बना कर,
उनकी आखों में खो गयी..
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कविता व्यास 
एक याद आती है सहसा 
हृदय सुमन खिल जाता है 
जिसकी चाह ,नहीं मिलता वह 
अनचाहा मिल जाता है। 

हो नज़रों से दूर भले तुम 
मन में पर तुम ही तुम हो 
सिर्फ साथ रहने भर से ही 
उधड़ा मन सिल जाता है।
कई बार चाहा कह दूं 
जी नहीं लगता आपके बि‍न
मगर हर बार कहने से पहले
जुबां कांपती है 
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समीर लाल ’समीर’
दो काल खण्ड
इस जीवन के
और उन्हें जोड़ता
वो इक लम्हा
जो हाथ पसारे
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वीरेन्द्र कुमार शर्मा 
वो वोट डालने आया था ,
बंदर को मोदी भाया था। 
लालू को (बहुत )भौत खिजाया था ,
नीतीश को भी भरमाया था।
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कौशल लाल  
 आसमान की गहराई अनंत
 जैसे हमारी इच्छाएं ,
 गहराते बादल बस उसे ढकने का विफल प्रयास
 चिरंतन से जैसे।
 दर्शन मोह से विच्छेदित कर
 आवरण चढ़ाने को तत्पर ,
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फ़िरदौस ख़ान 
एक बादशाह था. उसके दो बेटे थे, जो अपने वालिद से बहुत प्यार करते थे. बादशाह का बर्ताव अपने दोनों के बेटों के साथ बहुत अलग था. बड़े बेटे को हर तरह की आज़ादी थी, उसके लिए ऐशो-इशरत का हर सामान था. वह जहां चाहे,
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प्रतिभा कटियार  
गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारों, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले 
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अर्चना तिवारी 
करीम फुटपाथ के किनारे अपने दीये सजाए, ग्राहकों की आस में हर आने-जाने वालों को टुकर-टुकर देखे जा रहा था। कोई ग्राहक उसकी ओर आता दिखता तो उसकी आँखों में थोड़ी चमक आ जाती थी लेकिन
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मुक्तक 
वीणा सेठी  
बेहद उदास शाम है आज;
कोई भी साथ नहीं है आज.
चलो इतना तो करते हैं;
खुद के ही साथ हो ले आज
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रेखा श्रीवास्तव  
अजय की इच्छा है कि इस जन्मदिन पर कुछ अलग तरह से उनको जन्मदिन की शुभकामनाएं मिलें और उसको संचित कर रखा जा सके लेकिन यह जिन पलों को मैं यहाँ अंकित करने जा रही हूँ। 
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अनीता जी 
ऐसे तो हर कोई सुख की खोज में लगा है पर जो सचेतन होकर सुख की तलाश में निकलता है वह एक दिन स्वयं को सुख के सागर में पाता है. सुख की तलाश जब सजग होकर की जाती है तो उसका पता पूछना होगा
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साधना वैद

कान तरसते रह गये, बादरवा का शोर 
ना बरखा ना बीजुरी, कैसे नाचे मोर ! 

शीतल जल के परस बिन, मुरझाए सब फूल 
कोयल बैठी अनमनी, गयी कुहुकना भूल !
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पल्ल्वी  सक्सेना  
अपराधी आखिर कौन ? बलात्कार या बलात्कारी जैसा शब्द सुनकर अब अजीब नहीं लगता। क्यूंकि अब तो यह बहुत ही आम बात हो गयी है। कई बार तो एक स्त्री होने के बावजूद भी अब ऐसे विषयों को पढ़ने का या इस विषय पर सोचने का भी मन नहीं करता। कुछ हद तक तो अब अफसोस भी नहीं होता। हालांकी मैं यह बहुत अच्छे से जानती हूँ कि
अनन्या सिंह 

निराशा के पलों में जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, अवसाद के रोड़े जब मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं, अंतर्द्वन्द के चौराहे पर खड़े जब हम भटकाव की स्थिति में पहुँच जाते हैं,

तब हमें उम्मीद की एक पगडंडी नज़र आती है।
तत्क्षण हमें इस पगडंडी पर चल पड़ना चाहिए।
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इस करवाचौथ 
अर्पणा खरे 

देखो आ गया है करवाचौथ
मैं तुमसे दूर सही
फिर भी तुम रखोगी
मेरी खातिर उपवास
कविता रावत 
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धन्यवाद, फिर मिलेंगे आज ही के दिन, 
आपका दिन मंगलमय हो। 

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