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शनिवार, जुलाई 25, 2015

"भोर हो गई ..." {चर्चा अंक-2047}

मित्रों।
शनिवार की चर्चा में आप सबका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक
और एक पोस्ट विशेष की समीक्षा।
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मां तेरी यादों के आगे 

मानसी पर Manoshi Chatterjee 
मानोशी चटर्जी 
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तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त.... 

मैं आज भी दराज से, 
निकालने में डरती हूँ.. 
मैं खो ना जाऊं... 
कही उनके लब्जों में, 
अनदेखा करके...मैं आज भी, 
उस अलमारी के पास, से गुज़रती हूँ... 
तुम्हारे नाम लिखे सारे ख़त... 
'आहुति' पर sushma 'आहुति' 
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मित्रों।
आज में एक ऐसे ब्लॉगर से आपका परिचय करा रहा हूँ जो सदैव छन्दबद्ध रचना ही करते हैं।
उनका नाम है राजेन्द्र स्वर्णकार

आदरणीय राजेन्द्र स्वर्णकार जी का ब्लॉग है-
शस्वरं
इनका सिद्धान्त है- "भले ही कम लिखो मगर शुद्ध लिखो।"
देखिए इनका यह गीत
तुम मिले मुझको नया संसार जैसे मिल गया

रेंगता मंथर विकल क्षत आयु-रथ हतभाग-सा
प्रीत-स्वर रससिक्त पतझड़ में बसंती राग-सा
सुन लिया ; ...तो स्वप्न इक सुकुमार जैसे मिल गया

बुझ रहा जो दीप उसकी कौन सुध लेता यहां
दृष्टिगत शशि तिमिर रजनी में हुआ किसको कहां
विजन वन में पूर्ण स्नेहागार जैसे मिल गया

पूर्ण तो होती नहीं हर चाह हर इक एषणा
शेष रह जाती हृदय की प्यास और गवेषणा
मीत ! तुम में कर्म का प्रतिकार जैसे मिल गया
यह तो रही बात गीत की-
मगर इनकी गज़लों का भी जवाब नहीं है
ये हमेशा मुकम्मल ग़ज़ल ही लिखते हैं जो
ग़ज़ल के पैरामीटर पर बिल्कुल खरी उतरती है।
देखिए इनकी एक ग़ज़ल
आज के लिए केवल इतना ही।

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